ओम् शान्ति।
बच्चे बैठे हैं नज़र लगाकर। बाप भी देख रहे हैं आत्मा को और इस शरीर को। बच्चे भी
देख रहे हैं। देखने में मजा आता है वा सुनने में मजा आता है? क्योंकि सुनना तो बहुत
हुआ है। बहुत ही ज्ञान आदि ढेर का ढेर सुना है। तुम नम्बरवन भगत हो। तुमने ही सबसे
जास्ती भक्ति की है। वेद, शास्त्र, ग्रंथ, गीता, गायत्री, जप, तप आदि सब पढ़े किये
हैं, बहुत सुनते हैं। बाप समझाते हैं कब से लेकर यह सुने हैं? जब से यह निकले हैं
बहुत सुना है। बाकी बाप से नज़र मिलाना सो अभी ही होता है। नज़र से निहाल होते ही
हैं। यह एक श्लोक भी है - नज़र से निहाल स्वामी कींदा सतगुरू। गुरू भी है, स्वामी
भी है सजनियों का। नज़र के सामने बैठे हैं नज़र से ही बाप को जानते हैं कि उससे हमको
विश्व का मालिकपना मिलता है। बाप को देखने से दिल खुश हो जाती है क्योंकि बाप से ही
सब कुछ मिलता है। बाप में ही सब कुछ समाया हुआ है। जब बाप मिला, नज़र के सामने बैठे
हो तो जरूर बच्चों को स्वर्ग की बादशाही का नशा भी चढ़ेगा। पहले बाप का नशा, फिर बे
बादशाही का नशा। हम जानते हैं हम अभी बाप के सामने बैठे हैं। देह-अभिमान अब निकल रहा
है। हम आत्मायें इस शरीर के साथ चक्र लगाते, पार्ट बजाते-बजाते अब हमारा बाप भी
सम्मुख बैठा है। बाप के साथ खुशी होती ही है वर्से की। बच्चे जब बड़े होते हैं तो
बुद्धि में आता है हम बैरिस्टर का, इंजीनियर का, बादशाह का बच्चा हूँ। मैं बादशाही
का मालिक हूँ। यहाँ तुम जानते हो बाप से हमको स्वर्ग का वर्सा मिलता है। बाप को
देखने से बच्चों को स्थाई खुशी होनी चाहिए, इसको ही रूहरिहान कहा जाता है। जो
सुप्रीम बाप है सबका, वह बैठ आत्माओं से बात करते हैं। आत्मा इस शरीर द्वारा सुनती
है। यह एक ही बार ऐसा होता है कि बाप को याद करते-करते जब वह आते हैं और नज़र मिलाते
हैं तो 21 जन्मों के लिए वर्सा दे देते हैं। यह तुम बच्चों को याद रहना चाहिए। बच्चे
जो हैं वह भूल जाते हैं, भूलना नहीं चाहिए। बाबा की नज़र के सामने होने से ही समझते
हैं हम बाबा के साथ बैठे हैं। बाबा को देखने से खुशी का पारा चढ़ता है और बाप बैठ
नई-नई प्वाइंट्स समझाते हैं। बाप से बच्चों का पूरा लव हो जाए। आत्मा अपनी दिल पूरी
कर दे क्योंकि बिछुड़ी हुई है। अनेक प्रकार के दु:ख देखे हैं। अब सम्मुख बैठे हैं
तो देखकर हर्षित होने चाहिए। बाप के सम्मुख होने से हर्षित होते हो वा बाप से दूर
होने से भी इतना हर्षितपना रहता है? विवेक कहता है बाहर तो बहुत बातें सुनते हैं तो
बुद्धि और तरफ चली जाती है। यह जो मधुबन में बच्चे बैठे हैं, सम्मुख सुनते हैं। बाबा
प्यार से कशिश करते हैं। देखो, तुम्हारा कितना मीठा, कितना प्यारा बाबा है। तुमको
स्वर्ग में जाने के लायक बना रहे हैं। बच्चे स्वर्ग के मालिक थे। अब ड्रामा अनुसार
सब कुछ गंवा दिया है। राज्य गंवाना और पाना यह तो बड़ी बात नहीं। तुम ही इस बात को
जानते हो। दुनिया में करोड़ों आत्मायें हैं, परन्तु कोटों में कोई मुझे पहचानता है।
मैं क्या हूँ और कैसा हूँ, मैं जो हूँ, जैसा हूँ मेरे द्वारा क्या मिलता है? यह
समझते हुए भी वन्डर है जो माया भुला देती है। ऐसे नहीं कि सम्मुख वालों को माया
भुलाती नहीं है। सम्मुख वालों को भी माया भुलाती है। शिवबाबा में भी पूरा लव होना
चाहिए। लव कैसे बढ़े जो बाबा से हम ऊंच वर्सा लेवें? बाप कहेंगे खिदमत (सेवा) करो।
बाप बच्चों की खिदमत करते हैं। बच्चे जानते हैं, बाबा दूरदेश से आया है।
निश्चयबुद्धि बच्चों को कभी डगमग नहीं होना चाहिए। मूँझना नहीं चाहिए, परन्तु माया
बहुत जबरदस्त है। बाबा तो श्रंगार रहे हैं। मनुष्य को देवता बनाते हैं। यह स्कूल है
ही देवता बनने का। पवित्र दुनिया का मालिक बनने के लिए यह मेहनत है। बाबा सिर्फ कहते
हैं मुझे याद करो। मनुष्य जब मरते हैं तो उनको कहते हैं राम को याद करो। परन्तु राम
को जानते ही नहीं तो याद से कोई फायदा ही नहीं। तुमको तो बाप की पूरी पहचान है। तुम
आते ही हो शिवबाबा के पास। वह तो निराकार है, क्रियेटर है। क्रियेट कैसे करेंगे?
प्रजापिता ब्रह्मा को भी क्रियेटर कहते हैं, ब्रह्मा द्वारा मनुष्य सृष्टि पैदा होती
है, इसलिए प्रजापिता ब्रह्मा कहा जाता है। तुम अब ब्राह्मण बने हो। तुम्हारी आत्मा
अब अच्छी रीति जानती है कि हम शिवबाबा के पोत्रे, ब्रह्मा के बच्चे बने हैं। तुम
बच्चे चाहते हो हमारे विकर्म विनाश हो जाएं और हम विजय माला में नजदीक पिरो जाएं,
तो बाबा को बहुत याद करना पड़े। फिर तुम कर्मयोगी भी हो। घरबार सम्भालते पवित्र रहना
है, कमल फूल समान। यह मिसाल कोई संन्यासियों से नहीं लगता है। वह गृहस्थ व्यवहार
में रहते कमल फूल समान पवित्र रह नहीं सकते। न किसको कह सकते हैं। जो जैसा है, वह
ऐसा ही बनायेगा। संन्यासी यह कह नहीं सकते कि कमल सम पवित्र रहो। अगर कहें ब्रह्म
को याद करो, वह भी हो नहीं सकता। कहेंगे तुमने तो घरबार छोड़ा है, हम कैसे छोड़ें?
तुम ही घर गृहस्थ में रह नहीं सके तो दूसरों को कैसे कह सकते। वह राजयोग की शिक्षा
दे न सकें। अभी तुम सभी धर्म वालों के राज़ को समझ गये हो। हर एक धर्म को फिर अपने
समय पर आना है। कलियुग से फिर सतयुग होना है। सतयुग के लिए चाहिए आदि सनातन
देवी-देवता धर्म और कोई धर्म वाले मनुष्य को देवता बना नहीं सकते। उन्हों को जाना
ही मुक्ति में है, सुख है ही स्वर्ग में। जब हम देवी-देवता बनें तब दूसरे धर्म वाले
मुक्ति में जायें। जब तक हम जीवनमुक्ति धाम स्वर्ग में नहीं गये हैं तब तक कोई
मुक्ति में जा नहीं सकते। स्वर्ग और नर्क इकट्ठा रह नहीं सकते। हम जीवनमुक्ति का
वर्सा पायेंगे तो जीवनबंध वाले रहने नहीं चाहिए। तुम जानते हो इस समय है संगम। तुम
ही कल्प के संगम पर बाबा से मिलते हो, दूसरे कोई मिल न सकें। दूसरे समझते हैं यह तो
कलियुग है। हम अभी कलियुग में नहीं हैं। बाबा से स्वर्ग के लिए फिर से वर्सा पा रहे
हैं। हम जीते जी मरकर बाप के बने हैं। जो एडाप्ट होते हैं उन्हें दोनों जहानों का
मालूम पड़ता है। फलाने के थे, अब फलाने के बने हैं। वह अपने मित्र सम्बन्धी आदि सबको
जानते हैं, दोनों तरफ का मालूम रहता है। तुम बच्चे जानते हो इस दुनिया से हमने लंगर
उठा लिया है। अभी हम जा रहे हैं। इससे हमारा कोई तैलुक नहीं है। यह भगवान अपने बच्चों
से यानी परमपिता परमात्मा सालिग्राम बच्चों से बात कर रहे हैं। भगवान को आना है,
परन्तु जानते नहीं हैं। बाप को न जानने कारण मूँझ पड़ते हैं। इतनी सहज बात कोई भी
नहीं समझते। याद करते हैं। तुम जानते हो हम आत्मा शरीर लेकर पार्ट बजाती हैं। हम
परमधाम से आती हैं। वहाँ परमपिता परमात्मा भी रहते हैं। मनुष्य तो न आत्मा को, न
परमात्मा को जानते हैं। कैसे भगवान आकर मिलेगा? क्या करेगा। कोई भी नहीं जानते हैं।
गीता में सारा रांग लिख दिया है। नाम ही बदल दिया है। बाप पूछते हैं तुम मुझे जानते
हो ना? कृष्ण थोड़ेही ऐसे कहेंगे - तुम मुझे जानते हो? उनको तो सारी दुनिया जानती
है। वह ज्ञान दे न सकें। तो जरूर समझाना चाहिए, भगवान रूप बदलता है परन्तु कृष्ण नहीं
बनता। वह मनुष्य के तन में आता है, कृष्ण के तन में नहीं आते हैं। यह है ब्रह्मा।
वह है ही कृष्ण की आत्मा। सिर्फ थोड़ी सी बात में भूले हैं। यह है कृष्ण के 84 वें
जन्म की आत्मा, जो फिर आदि में कृष्ण बनता है। अन्तिम जन्म में कृष्ण पद पाने के
लिए पुरुषार्थ कर रहे हैं। यह कितनी गुप्त बातें हैं। जरा सी बात भूल गई है, इसमें
बड़ी तिरकमबाजी है।
तुम जानते हो हम कृष्ण के घराने के थे। अब शिवबाबा से फिर राज्य भाग्य ले रहे
हैं। हमारी बुद्धि में कृष्ण बैठता नहीं है। मनुष्य तो कह देते हैं कृष्ण भगवानुवाच।
कुछ भी सिद्ध नहीं होता है। गीता में दिखाया है पांच पाण्डव जाकर बचे। कल्प की आयु
लाखों वर्ष दे दी है। इतनी सहज बात भी मनुष्य नहीं जानते हैं। तुम कितना इशारे से
समझ सकते हो कि हम ही सूर्यवंशी घराने के थे, अब सूर्यवंशी से शूद्रवंशी में आये
हैं। फिर ब्राह्मण से देवता बनते हैं। वर्णों को भी बुद्धि में रखना पड़ता है। उन्हों
ने वर्णों को भी आधा कर दिया है। चोटी ब्राह्मण और शिवबाबा को भूल गये हैं। बाकी
देवता, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र दिखा दिया है। ब्राह्मण तो जरूर चाहिए ना। ब्रह्मा
की औलाद कहाँ गई। यह कोई की बुद्धि में नहीं बैठता। तुमको बाप अच्छी रीति समझाते
हैं, तुमको बुद्धि में अच्छी रीति धारण करना है। जो नॉलेज बाप की बुद्धि में है वह
तुम्हारे में भी रहनी चाहिए। मैं तुम आत्माओं को आप समान बनाता हूँ। जो सृष्टि चक्र
की नॉलेज मेरे में है, वह तुम्हारी बुद्धि में भी है। बुद्धिवान चाहिए। बाबा के साथ
योग भी हो और घड़ी-घड़ी विचार सागर मंथन होता रहे। तुम अब सम्मुख बैठे हो। समझते हो
बाबा तो बिल्कुल सहज समझाते हैं। कहते भी हैं आत्मा परमात्मा... सतगुरू दलाल के रूप
में पढ़ाते हैं। दलाल अथवा सौदा कराने वाले। बाप इन द्वारा आकर अपने साथ सौदा कराते
हैं। तुम जानते हो दलाल को याद नहीं करना है। दलाल द्वारा हमारी सगाई होती है
शिवबाबा से। तुम सब बीच वाले दलाल हो। कहते हैं परमपिता परमात्मा से तुम्हारा क्या
सम्बन्ध है? तुम सगाई कराने की युक्ति रचते हो। फिर प्रजापिता का नाम भी देते हो।
वर्सा शिवबाबा से मिलता है। स्वर्ग का रचयिता ही वह है। जीव आत्माओं की परमात्मा के
साथ सगाई होती है। सगाई की थी, वर्सा पाया था फिर से पाते हैं।
तुम जानते हो हमारा कल्प-कल्प, कल्प के संगमयुग का यही धन्धा है, और कोई भी
आत्माओं की परमात्मा से सगाई नहीं कराते हैं। सगाई भी उनसे कराते हैं जो विश्व का
मालिक बनाते हैं। यह है ऊंचे ते ऊंच रूहानी सगाई। रूहानी सगाई करना कल्प-कल्प बाप
से ही सीखते हैं। कल्प-कल्प ऐसा होता है। कल्प-कल्प मनुष्य से देवता जरूर बनते हैं।
देवता फिर से मनुष्य बनते हैं। मनुष्य तो मनुष्य ही हैं। परन्तु क्यों लिखा है -
मनुष्य से देवता किये..... क्योंकि देवता धर्म स्थापन करते हैं। तुम भी जानते हो इस
सगाई से हम मनुष्य से देवता बन रहे हैं। सब कहते हैं क्राइस्ट से 3 हजार वर्ष पहले
भारत हेविन था, परन्तु बुद्धि में नहीं आता है। भारत पहले स्वर्ग था, अभी भी कितने
मन्दिर बनाते हैं। परन्तु सबकी उतरती कला है। हमारी है चढ़ती कला। चढ़ती कला में एक
सेकेण्ड लगता है। अच्छा!
मीठे-मीठे सिकीलधे बच्चों प्रति मात-पिता बापदादा का याद-प्यार और गुडमार्निंग।
रूहानी बाप की रूहानी बच्चों को नमस्ते।
धारणा के लिए मुख्य सार:-
1) कभी भी किसी बात में मूंझ कर निश्चय में ऊपर नीचे नहीं होना है।
घरबार सम्भालते, कर्मयोगी होकर रहना है। विजय माला में नजदीक आने के लिए पवित्र
जरूर बनना है।
2) बुद्धिवान बनने के लिए ज्ञान का विचार सागर मंथन करना है। सदा खिदमत (सेवा)
में तत्पर रहना है। आप समान बनाने की सेवा करनी है।