22-12-2025 प्रात:मुरली ओम् शान्ति "बापदादा" मधुबन
“मीठे बच्चे - बाप जो है,
जैसा है, उसे यथार्थ पहचान कर याद करो, इसके लिए अपनी बुद्धि को विशाल बनाओ''
प्रश्नः-
बाप को
गरीब-निवाज़ क्यों कहा गया है?
उत्तर:-
क्योंकि इस
समय जब सारी दुनिया गरीब अर्थात् दु:खी बन गई है तब बाप आये हैं सबको दु:ख से
छुड़ाने। बाकी किस पर तरस खाकर कपड़े दे देना, पैसा दे देना वह कोई कमाल की बात नहीं।
इससे वह कोई साहूकार नहीं बन जाते। ऐसे नहीं मैं कोई इन भीलों को पैसा देकर
गरीब-निवाज़ कहलाऊंगा। मैं तो गरीब अर्थात् पतितों को, जिनमें ज्ञान नहीं है, उन्हें
ज्ञान देकर पावन बनाता हूँ।
गीत:-
यही बहार है
दुनिया को भूल जाने की.......
ओम् शान्ति।
मीठे-मीठे बच्चों ने गीत सुना। बच्चे जानते हैं गीत तो दुनियावी मनुष्यों ने गाया
है। अक्षर बड़े अच्छे हैं, इस पुरानी दुनिया को भुलाना है। आगे ऐसे नहीं समझते थे।
कलियुगी मनुष्यों को भी समझ में नहीं आता है कि नई दुनिया में जाना होगा तो जरूर
पुरानी दुनिया को भूलना होगा। भल इतना समझते हैं पुरानी दुनिया को छोड़ना है परन्तु
वह समझते हैं अजुन बहुत समय पड़ा है। नई सो पुरानी होगी, यह तो समझते हैं परन्तु
लम्बा टाइम डालने से भूल गये हैं। तुमको अब स्मृति दिलाई जाती है, अभी नई दुनिया
स्थापन होती है इसलिए पुरानी दुनिया को भूलना है। भूल जाने से क्या होगा? हम यह
शरीर छोड़ नई दुनिया में जायेंगे। परन्तु अज्ञान काल में ऐसी-ऐसी बातों के अर्थ पर
किसका ध्यान नहीं जाता। जिस प्रकार बाप समझाते हैं, ऐसे कोई भी समझाने वाला नहीं
है। तुम इनके अर्थ को समझ सकते हो। यह भी बच्चे जानते हैं - बाप है बहुत साधारण।
अनन्य, अच्छे-अच्छे बच्चे भी पूरा समझते नहीं हैं। भूल जाते हैं कि इनमें शिवबाबा
आते हैं। कोई भी डायरेक्शन देते हैं तो समझते नहीं कि यह शिवबाबा का डायरेक्शन है।
शिवबाबा को सारा दिन जैसे भूले हुए हैं। पूरा न समझने कारण वह काम नहीं करते। माया
याद करने नहीं देती। स्थाई वह याद ठहरती नहीं। मेहनत करते-करते पिछाड़ी में आखिर वह
अवस्था होनी जरूर है। ऐसा कोई भी नहीं जो इस समय कर्मातीत अवस्था को पा ले। बाप जो
है, जैसा है उनको जानने में बड़ी बुद्धि चाहिए।
तुमसे पूछेंगे बापदादा गर्म कपड़े पहनते हैं? कहेंगे दोनों को पड़े हुए हैं।
शिवबाबा कहेंगे मैं थोड़ेही गर्म कपड़े पहनूँगा। मुझे ठण्डी नहीं लगती। हाँ, जिसमें
प्रवेश किया है उनको ठण्डी लगेगी। मुझे तो न भूख, न प्यास कुछ नहीं लगता। मैं तो
निर्लेप हूँ। सर्विस करते हुए भी इन सब बातों से न्यारा हूँ। मैं खाता, पीता नहीं
हूँ। जैसे एक साधू भी कहता था ना, मैं न खाता हूँ, न पीता हूँ.... उन्होंने फिर
आर्टीफीशियल वेश धारण कर लिया है। देवताओं के नाम भी तो बहुतों ने रखे हैं। और कोई
धर्म में देवी-देवता बनते नहीं हैं। यहाँ कितने मन्दिर हैं। बाहर में तो एक शिवबाबा
को ही मानते हैं। बुद्धि भी कहती है फादर तो एक होता है। फादर से ही वर्सा मिलता
है। तुम बच्चों की बुद्धि में है - कल्प के इस पुरुषोत्तम संगमयुग पर ही बाबा से
वर्सा मिलता है। जब हम सुखधाम में जाते हैं तो बाकी सब शान्तिधाम में रहते हैं।
तुम्हारे में भी यह समझ नम्बरवार है। अगर ज्ञान के विचारों में रहते हैं तो उन्हों
के बोल ही वह निकलेंगे। तुम रूप-बसन्त बन रहे हो - बाबा द्वारा। तुम रूप भी हो और
बसन्त भी हो। दुनिया में और कोई कह न सके कि हम रूप-बसन्त हैं। तुम अभी पढ़ रहे हो,
पिछाड़ी तक नम्बरवार पुरुषार्थ अनुसार पढ़ लेंगे। शिवबाबा हम आत्माओं का बाप है ना।
यह भी दिल से लगता तो है ना। भक्ति मार्ग में थोड़ेही दिल से लगता है। यहाँ तुम
सम्मुख बैठे हो। समझते हो बाप फिर इस समय ही आयेंगे फिर कोई और समय बाप को आने की
दरकार ही नहीं। सतयुग से त्रेता तक आना नहीं है। द्वापर से कलियुग तक भी आने का नहीं
है। वह आते ही हैं कल्प के संगमयुग पर। बाप है भी गरीब निवाज़ अर्थात् सारी दुनिया
जो दु:खी गरीब हो जाती है उनका बाप है। इनकी दिल में क्या होगा? हम गरीब निवाज़
हैं। सबका दु:ख अथवा गरीबी मिट जाए। वो तो सिवाए ज्ञान से कम हो न सके। बाकी कपड़ा
आदि देने से कोई साहूकार तो नहीं बन जायेंगे ना। करके गरीब को देखने से दिल होगी
इनको कपड़ा दे दें, क्योंकि याद पड़ता है ना - मैं गरीब निवाज़ हूँ। साथ-साथ यह भी
समझता हूँ - मैं गरीब निवाज़ कोई इन भीलों के लिए ही नहीं हूँ। मैं गरीब निवाज़ हूँ
जो बिल्कुल ही पतित हैं उन्हों को पावन बनाता हूँ। मैं हूँ ही पतित-पावन। तो विचार
चलता है, मैं गरीब निवाज़ हूँ परन्तु पैसे आदि कैसे दूँ। पैसे आदि देने वाले तो
दुनिया में बहुत हैं। बहुत फन्ड्स निकालते हैं, जो फिर अनाथ आश्रम में भेज देते
हैं। जानते हैं अनाथ रहते हैं अर्थात् जिसको नाथ नहीं। अनाथ माना गरीब। तुम्हारा भी
नाथ नहीं था अर्थात् बाप नहीं था। तुम गरीब थे, ज्ञान नहीं था। जो रूप-बसन्त नहीं,
वह गरीब अनाथ हैं। जो रूप बसन्त हैं उनको सनाथ कहा जाता है। सनाथ साहूकार को, अनाथ
गरीब को कहा जाता है। तुम्हारी बुद्धि में है सब गरीब हैं, कुछ उन्हों को दे देवें।
बाप गरीब-निवाज़ है तो कहेंगे ऐसी चीज़ें देवें जिससे सदा के लिए साहूकार बन जायें।
बाकी यह कपड़ा आदि देना तो कॉमन बात है। उनमें हम क्यों पड़ें। हम तो उनको अनाथ से
सनाथ बना देवें। भल कितना भी कोई पद्मपति है, परन्तु वह भी सब अल्पकाल के लिए है।
यह है ही अनाथों की दुनिया। भल पैसे वाले हैं, वह भी अल्पकाल के लिए। वहाँ हैं सदैव
सनाथ। वहाँ ऐसे कर्म नहीं कूटते। यहाँ कितने गरीब हैं। जिनको धन है, उन्हों को तो
अपना नशा चढ़ा रहता है - हम स्वर्ग में हैं। परन्तु हैं नहीं, यह तुम जानते हो। इस
समय कोई भी मनुष्य सनाथ नहीं हैं, सब अनाथ हैं। यह पैसे आदि तो सब मिट्टी में मिल
जाने वाले हैं। मनुष्य समझते हैं हमारे पास इतना धन है जो पुत्र-पोत्रे खाते रहेंगे।
परम्परा चलता रहेगा। परन्तु ऐसे चलना नहीं है। यह तो सब विनाश हो जायेगा इसलिए तुमको
इस सारी पुरानी दुनिया से वैराग्य है।
तुम जानते हो नई दुनिया को स्वर्ग, पुरानी दुनिया को नर्क कहा जाता है। हमको बाबा
नई दुनिया के लिए साहूकार बना रहे हैं। यह पुरानी दुनिया तो खत्म हो जानी है। बाप
कितना साहूकार बनाते हैं। यह लक्ष्मी-नारायण साहूकार कैसे बनें? क्या कोई साहूकार
से वर्सा मिला वा लड़ाई की? जैसे दूसरे राजगद्दी पाते हैं, क्या ऐसे राजगद्दी पाई?
वा कर्मों अनुसार यह धन मिला? बाप का कर्म सिखलाना तो बिल्कुल ही न्यारा है।
कर्म-अकर्म-विकर्म अक्षर भी क्लीयर है ना। शास्त्रों में कुछ अक्षर हैं, आटे में
नमक जितने रह जाते हैं। कहाँ इतने करोड़ मनुष्य, बाकी 9 लाख रहते हैं। क्वार्टर
परसेन्ट भी नहीं हुआ। तो इसको कहा जाता है आटे में नमक। दुनिया सारी विनाश हो जाती
है। बहुत थोड़े संगमयुग में रहते हैं। कोई पहले से शरीर छोड़ जाते हैं। वह फिर
रिसीव करेंगे। जैसे मुगली बच्ची थी, अच्छी थी तो जन्म बिल्कुल अच्छे घर में लिया
होगा। नम्बरवार सुख में ही जन्म लेते हैं। सुख तो उनको देखना है, थोड़ा दु:ख भी
देखना है। कर्मातीत अवस्था तो किसकी हुई नहीं है। जन्म बड़े सुखी घर में जाकर लेंगे।
ऐसे मत समझो यहाँ कोई सुखी घर हैं नहीं। बहुत परिवार ऐसे अच्छे होते हैं, बात मत
पूछो। बाबा का देखा हुआ है। बहुएं एक ही घर में ऐसे शान्त मिलाप में रहती हैं जो बस,
सभी साथ में भक्ति करती हैं, गीता पढ़ती हैं....। बाबा ने पूछा इतनी सब इकट्ठी रहती
हैं, झगड़ा आदि नहीं होता! बोला हमारे पास तो स्वर्ग है, हम सभी इकट्ठे रहते हैं।
कभी लड़ते-झगड़ते नहीं हैं, शान्त में रहते हैं। कहते हैं यहाँ तो जैसे स्वर्ग है
तो जरूर स्वर्ग पास्ट हो गया है तब कहने में आता है ना कि यहाँ तो जैसे स्वर्ग लगा
पड़ा है। परन्तु यहाँ तो बहुतों का स्वभाव स्वर्गवासी बनने का दिखाई नहीं देता।
दास-दासियां भी तो बनने हैं ना। यह राजधानी स्थापन होती है। बाकी जो ब्राह्मण बनते
हैं वह दैवी घराने में आने वाले हैं। परन्तु नम्बरवार हैं। कोई तो बहुत मीठे होते
हैं, सबको प्यार करते रहेंगे। कभी किसको गुस्सा नहीं करेंगे। गुस्सा करने से दु:ख
होता है। जो मन्सा-वाचा-कर्मणा किसको दु:ख ही देते रहते हैं - उनको कहा जाता है
दु:खी आत्मा। जैसे पुण्य आत्मा, पाप आत्मा कहते हैं ना। शरीर का नाम लेते हैं क्या?
वास्तव में आत्मा ही बनती है, सब पाप आत्मायें भी एक जैसी नहीं होती हैं। पुण्य
आत्मा भी सब एक जैसी नहीं होती। नम्बरवार पुरुषार्थ अनुसार होते हैं। स्टूडेण्ट खुद
समझते होंगे ना कि हमारे कैरेक्टर्स, अवस्था कैसी है? हम कैसे चलते हैं? सबको मीठा
बोलते हैं? कोई कुछ कहे हम उल्टा-सुल्टा जवाब तो नहीं देते हैं? बाबा को कई बच्चे
कहते हैं - बच्चों पर गुस्सा आ जाता है। बाबा कहते हैं जितना हो सके प्यार से काम
लो। निर्मोही भी बनना चाहिए।
यह तो तुम बच्चे समझते हो - हमको यह लक्ष्मी-नारायण बनना है। एम ऑब्जेक्ट सामने
खड़ी है। कितनी ऊंच एम ऑब्जेक्ट है। पढ़ाने वाला भी हाइएस्ट है ना। श्रीकृष्ण की
महिमा कितनी गाते हैं - सर्वगुण सम्पन्न, 16 कला सम्पन्न.... अब तुम बच्चे जानते हो
हम वह बन रहे हैं। तुम यहाँ आये ही हो यह बनने के लिए। तुम्हारी यह सच्ची सत्य
नारायण की कथा है ही नर से नारायण बनने की। अमरकथा है अमरपुरी जाने की। कोई संन्यासी
आदि इन बातों को नहीं जानते। कोई भी मनुष्य मात्र को ज्ञान का सागर वा पतित-पावन नहीं
कहेंगे। जबकि सारी सृष्टि ही पतित है तो हम पतित-पावन किसको कहें? यहाँ कोई पुण्य
आत्मा हो न सके। बाप समझाते हैं - यह दुनिया पतित है। श्रीकृष्ण है अव्वल नम्बर।
उनको भी भगवान नहीं कह सकते। जन्म-मरण रहित एक ही निराकार बाप है। गाया जाता है शिव
परमात्माए नम:, ब्रह्मा-विष्णु-शंकर को देवता कह फिर शिव को परमात्मा कहते हैं। तो
शिव सबसे ऊपर हुआ ना। वह है सबका बाप। वर्सा भी बाप से मिलना है, सर्वव्यापी कहने
से वर्सा नहीं मिलता है। बाप स्वर्ग की स्थापना करने वाला है तो जरूर स्वर्ग का ही
वर्सा देंगे। यह लक्ष्मी-नारायण हैं नम्बरवन। पढ़ाई से यह पद पाया। भारत का प्राचीन
योग क्यों नहीं मशहूर होगा जिससे मनुष्य विश्व का मालिक बनते हैं उसको कहते हैं सहज
योग, सहज ज्ञान। है भी बहुत सहज, एक ही जन्म के पुरुषार्थ से कितनी प्राप्ति हो जाती
है। भक्ति मार्ग में तो जन्म बाई जन्म ठोकरें खाते आये, मिलता तो कुछ भी नहीं। यह
तो एक ही जन्म में मिलता है इसलिए सहज कहा जाता है। सेकेण्ड में जीवनमुक्ति कहा जाता
है। आजकल तो देखो कैसे-कैसे इन्वेन्शन निकालते रहते हैं। साइंस का भी वण्डर है।
साइलेन्स का भी वण्डर देखो कैसा है? वह सब कितना देखने में आता है। यहाँ कुछ नहीं
है। तुम शान्ति में बैठे हो, नौकरी आदि भी करते हो, हथ कार डे...और आत्मा की दिल
यार तरफ, आशिक माशूक भी गाये हुए हैं ना। वह एक दो की शक्ल पर आशिक होते हैं, विकार
की बात नहीं रहती। कहाँ भी बैठे याद आ जायेंगे। रोटी खाते रहेंगे बस सामने उनको
देखते रहेंगे। अन्त में तुम्हारी यह अवस्था हो जायेगी। बस बाप को ही याद करते रहेंगे।
अच्छा।
मीठे-मीठे सिकीलधे बच्चों प्रति मात-पिता बापदादा का यादप्यार और गुडमॉर्निंग।
रूहानी बाप की रूहानी बच्चों को नमस्ते।
धारणा के लिए मुख्य सार:-
1) रूप-बसन्त बन मुख से सदा सुखदाई बोल बोलने हैं, दु:खदाई नहीं बनना
है। ज्ञान के विचारों में रहना है, मुख से ज्ञान रत्न ही निकालने हैं।
2) निर्मोही बनना है, हर एक से प्यार से काम लेना है, गुस्सा नहीं करना है। अनाथ
को सनाथ बनाने की सेवा करनी है।
वरदान:-
अपने फरिश्ते
रूप द्वारा गति-सद्गति का प्रसाद बांटने वाले मास्टर गति-सद्गति दाता भव
वर्तमान समय विश्व की अनेक
आत्मायें परिस्थितियों के वश चिल्ला रही हैं, कोई मंहगाई से, कोई भूख से, कोई तन के
रोग से, कोई मन की अशान्ति से .... सबकी नजर टॉवर ऑफ पीस की तरफ जा रही है। सब देख
रहे हैं हा-हाकार के बाद जय-जयकार कब होती है। तो अब अपने साकारी फरिश्ते रूप द्वारा
विश्व के दु:ख दूर करो, मास्टर गति सद्गति दाता बन भक्तों को गति और सद्गति का
प्रसाद बांटो।
स्लोगन:-
मन को
इतना शक्तिशाली बना लो जो कोई भी परिस्थिति मन को हलचल में न ला सके।
अव्यक्त इशारे -
अब सम्पन्न वा कर्मातीत बनने की धुन लगाओ
अब सेवा के कर्म
के भी बन्धन में नहीं आओ। हमारा स्थान, हमारी सेवा, हमारे स्टूडेन्ट, हमारी सहयोगी
आत्मायें, यह भी सेवा के कर्म का बन्धन है, इस कर्मबन्धन से कर्मातीत। तो कर्मातीत
बनना है और “यह वही हैं, यही सब कुछ हैं,'' यह महसूसता दिलाए आत्माओं को समीप ठिकाने
पर लाना है।